बनारस Varanasi
वाराणसी को प्रायः ‘मंदिरों का शहर’, ‘भारत की धार्मिक राजधानी’, ‘भगवान शिव की नगरी’, ‘दीपों का शहर’, ‘ज्ञान नगरी’ आदि विशेषणों से संबोधित किया जाता है।
प्रसिद्ध अमरीकी लेखक मार्क ट्वेन लिखते हैं: “बनारस इतिहास से भी पुरातन है, परंपराओं से पुराना है, किंवदंतियों (लीजेन्ड्स) से भी प्राचीन है और जब इन सबको एकत्र कर दें, तो उस संग्रह से भी दोगुना प्राचीन है।”
हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का बनारस घराना वाराणसी में ही जन्मा एवं विकसित हुआ है। भारत के कई दार्शनिक, कवि, लेखक, संगीतज्ञ वाराणसी में रहे हैं, जिनमें कबीर, वल्लभाचार्य, रविदास, स्वामी रामानंद, त्रैलंग स्वामी, शिवानन्द गोस्वामी, मुंशी प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद, आचार्य रामचंद्र शुक्ल, पंडित रवि शंकर, गिरिजा देवी, पंडित हरि प्रसाद चौरसिया एवं उस्ताद बिस्मिल्लाह खां आदि कुछ हैं। गोस्वामी तुलसीदास ने हिन्दू धर्म का परम-पूज्य ग्रंथ रामचरितमानस यहीं लिखा था और गौतम बुद्ध ने अपना प्रथम प्रवचन यहीं निकट ही सारनाथ में दिया था।
वाराणसी में चार बड़े विश्वविद्यालय स्थित हैं: बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय, महात्मा गांधी काशी विद्यापीठ, सेंट्रल इंस्टीट्यूट ऑफ हाइयर टिबेटियन स्टडीज़ और संपूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय। यहां के निवासी मुख्यतः काशिका भोजपुरी बोलते हैं, जो हिन्दी की ही एक बोली है।
आइए जानते है Varanasi city Temple में यहां के प्रमुख मंदिरों को मेरे इस ब्लॉग पोस्ट में
वाराणसी काशी के प्रमुख मन्दिर पूजा स्थल
Varanasi city Temple
श्री काशी विश्वनाथ मंदिर
यह यहां का सबसे प्रमुख मंदिर है आइए जानते हैं मंदिर और इसके इतिहास को
यह भगवान शिव को समर्पित है तथा स्वर्ण मंदिर के रूप में भी जाना जाता है. भगवान् शिव का काशी से विशेष महात्य है. इन्हें काशी के नाथ देवता भी कहा जाता है कि जिस बिंदु पर पहले ज्योतिर्लिंग, जो दिव्या प्रकाश में स्थित शिव का प्रकाश है. काशी में घाट और उत्तरवाहिनी गंगा एवं मंदिर में स्थापित शिवलिंग वाराणसी को धर्म, अध्यात्म, भक्ति एवं ध्यान का महत्वपूर्ण केंद्र की ख्याती प्रदान करता है.12 ज्योतिर्लिंगों में से सातवां ज्योतिर्लिंग काशी विश्वनाथ है। इसके दर्शन मात्र से ही लोगों को मोक्ष की प्राप्ति होती है। वाराणसी एक ऐसा पावन स्थान है जहाँ काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग विराजमान है। यह शिवलिंग काले चिकने पत्थर का है।द्वादश ज्योतिर्लिंगों में प्रमुख काशी विश्वनाथ मंदिर अनादिकाल से काशी में है। यह स्थान शिव और पार्वती का आदि स्थान है इसीलिए आदिलिंग के रूप में अविमुक्तेश्वर को ही प्रथम लिंग माना गया है। इसका उल्लेख महाभारत और उपनिषद में भी किया गया है। ईसा पूर्व 11वीं सदी में राजा हरीशचन्द्र ने जिस विश्वनाथ मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया था उसका सम्राट विक्रमादित्य ने जीर्णोद्धार करवाया था। उसे ही 1194 में मुहम्मद गौरी ने लूटने के बाद तुड़वा दिया था।
इतिहासकारों के अनुसार इस भव्य मंदिर को सन् 1194 में मुहम्मद गौरी द्वारा तोड़ा गया था। इसे फिर से बनाया गया, लेकिन एक बार फिर इसे सन् 1447 में जौनपुर के सुल्तान महमूद शाह द्वारा तोड़ दिया गया। पुन: सन् 1585 ई. में राजा टोडरमल की सहायता से पं. नारायण भट्ट द्वारा इस स्थान पर फिर से एक भव्य मंदिर का निर्माण किया गया। इस भव्य मंदिर को सन् 1632 में शाहजहां ने आदेश पारित कर इसे तोड़ने के लिए सेना भेज दी। सेना हिन्दुओं के प्रबल प्रतिरोध के कारण विश्वनाथ मंदिर के केंद्रीय मंदिर को तो तोड़ नहीं सकी, लेकिन काशी के 63 अन्य मंदिर तोड़ दिए गए।
डॉ. एएस भट्ट ने अपनी किताब 'दान हारावली' में इसका जिक्र किया है कि टोडरमल ने मंदिर का पुनर्निर्माण 1585 में करवाया था। 18 अप्रैल 1669 को औरंगजेब ने एक फरमान जारी कर काशी विश्वनाथ मंदिर ध्वस्त करने का आदेश दिया। यह फरमान एशियाटिक लाइब्रेरी, कोलकाता में आज भी सुरक्षित है। उस समय के लेखक साकी मुस्तइद खां द्वारा लिखित 'मासीदे आलमगिरी' में इस ध्वंस का वर्णन है। औरंगजेब के आदेश पर यहां का मंदिर तोड़कर एक ज्ञानवापी मस्जिद बनाई गई। 2 सितंबर 1669 को औरंगजेब को मंदिर तोड़ने का कार्य पूरा होने की सूचना दी गई थी
1752 से लेकर सन् 1780 के बीच मराठा सरदार दत्ताजी सिंधिया व मल्हारराव होलकर ने मंदिर मुक्ति के प्रयास किए। 7 अगस्त 1770 ई. में महादजी सिंधिया ने दिल्ली के बादशाह शाह आलम से मंदिर तोड़ने की क्षतिपूर्ति वसूल करने का आदेश जारी करा लिया, परंतु तब तक काशी पर ईस्ट इंडिया कंपनी का राज हो गया था इसलिए मंदिर का नवीनीकरण रुक गया। 1777-80 में इंदौर की महारानी अहिल्याबाई द्वारा इस मंदिर का जीर्णोद्धार करवाया गया था।बाद में महाराजा रणजीत सिंह ने 1853 में 1000 किलोग्राम सोना सोना दान दिया था.कहा जाता है कि इस मंदिर में दर्शन करने के लिए आदि शंकराचार्य, सन्त एकनाथ, रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, महर्षि दयानंद, गोस्वामी तुलसीदास भी आए थे.
माँ अन्नपूर्णा मन्दिर
काशी विश्वनाथ मंदिर के पास, देवी अन्नपूर्णा का महत्वपूर्ण मंदिर है, जिसे “अन्न की देवी ” माना जाता है.
संकठा मन्दिर
सिंधिया घाट के पास, “संकट विमुक्ति दायिनी देवी” देवी संकटा का एक महत्वपूर्ण मंदिर है। इसके परिसर में शेर की एक विशाल प्रतिमा है। इसके अलावा यहां 9 ग्रहों के नौ मंदिर हैं।
कालभैरव मन्दिर
यह विशेसरगंज में हेड पोस्ट ऑफिस के पास वाराणसी का महत्वपूर्ण एवं प्राचीन मंदिर है। भगवान कलभैरव को “वाराणसी के कोतवाल” के रूप में माना जाता है, बिना उनकी अनुमति के कोई भी काशी में नहीं रह सकता है। रविवार को इनके दर्शन का विशेष महत्व है.
मृत्युंजय महादेव मन्दिर
कालभैरव मंदिर के निकट दारानगर के मार्ग पर भगवान शिव का यह मंदिर स्थित है। इसके अलावा इस मंदिर के बहुत सारे धार्मिक महत्व हैं, जिसका पानी कई भूमिगत धाराओं का मिश्रण है और कई रोगों को नष्ट करने के लिए उत्तम है।
विश्वनाथ मन्दिर बी एच यू
महामना मालवीय जी स्थपित बनारस हिंदू विश्वविद्यालय के परिसर में स्थित नया विश्वनाथ मन्दिर जो बिड़ला जी द्वारा निर्मित है। सभी जाति या पंथ के लिए खुला है।
तुलसी मानस मन्दिर
वाराणसी में निर्मित यह मंदिर भगवान राम को समर्पित है यह उस स्थान पर स्थित है जहां महान मध्यकालीन द्रष्टा गोस्वामी तुलसीदास रहते थे और महाकाव्य “श्री रामचरितमानस” लिखा करते थे, जो रामायण के नायक भगवान राम के जीवन का वर्णन करता है। तुलसीदास जी के महाकाव्य से छंद दीवारों पर अंकित हैं तथा यह दुर्गा मंदिर के निकट है।
संकटमोचन मन्दिर
दुर्गा मंदिर के रास्ते पर असी नदी धारा के निकट भगवान हनुमान का प्रसिद्ध मंदिर स्थित है। भगवान हनुमान को “संकटमोचन” के रूप में भी जाना जाता है जो मुसीबतों से मुक्ति दिलाता है। यह मंदिर गोस्वामी तुलसीदास द्वारा स्थापित किया गया है। यह मंदिर “बंदर” मंदिर के रूप में भी जाना जाता है, क्योंकि बहुत सारे बंदर परिसर के अंदर हैं।
दुर्गा मन्दिर
यह प्रसिद्ध मन्दिर 18 वी सदी में बनाया गया था। मंदिर पर पत्थर कारीगरी का बहुत सुन्दर काम है, यह नागौर शिल्प का एक अच्छा उदाहरण है। माँ दुर्गा शक्ति प्रतीक है जो संपूर्ण विश्व को नियंत्रित करती है। यहाँ माँ दुर्गा कुष्मांडा स्वरूप में विद्यमान हैं. “दुर्गाकुंड” मंदिर के निकट एक प्राचीन कुंड स्थित है।
भारत माता मन्दिर
महात्मा गांधी ने 1936 में इस मंदिर का उद्घाटन किया और संगमरमर से भारत माता का मानचित्र यहाँ पर बनाया गया है। इस अवसर पर राष्ट्रवादियों बाबू शिव प्रसाद गुप्ता (भारत रत्न) और श्री दुर्गा प्रसाद खत्री ने प्रमुख मुद्राशास्त्री और पुरातत्ववेत्ता को उपहार में दिया था।
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